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पुस्तकों का अध्ययन तीन विभिन्न प्रकारों से हमारी सहायता करता है। पुस्तक हमारे एकान्त में साथियों की तरह होती है- बुढ़ापे या जीवन के शेष दिनों में भी साथियों की तरह हमें प्रसन्नता देती रहती है। दूसरी बात यह है कि पुस्तक अच्छी भाषा विकसित करने की शिक्षा देती है। भाषा को आकर्षक प्रभावशाली बनाने में मदद करती है। विषाद या तर्क-वितर्क के समय इसका बड़ा व्यापक लाभ होता है क्योंकि हम अपनी बहस प्रभावशाली ढंँग से नहीं कर सकते, यदि भाषा पर हमारा अचूक अधिकार नहीं है।
तीसरी बात यह कि हम अपनी मानसिक शक्तियों का विकास अध्ययन के द्वारा ही कर सकते हैं और कठिन परिस्थिति आने पर शीघ्रता से उचित निर्णय भी ले पाते हैं और व्यावहारिक दुनियाँ की स्थितियों से अधिक प्रभावशाली ढंँग से व्यवस्थित और नियंत्रित करते हैं। जीवन के व्यावहारिक अनुभव निस्संदेह रूप से मनुष्य की व्यवहारिक समस्याओं के बीच व्यवस्था पैदा करने में सहायक होते हैं लेकिन एक सुपठित मनुष्य बड़ा अच्छा सलाहकार होता है क्योंकि वह खूब अच्छे ढंँग से योजनाएंँ बनाता है और हर चीज की ठीक व्यवस्था करता है।
पुस्तक पढ़ने के ये सभी लाभ हैं लेकिन अधिक पढ़ने या अधिक मात्रा में पुस्तक सेवी होना घातक है क्योंकि इससे आदमी निष्क्रिय तथा व्यावहारिक हो जाता है। पुस्तक पढ़ने की आदत मनुष्य की जन्मजात योग्यता के विकास में सहायक होती है। पुस्तक प्रेम से ही मनुष्य की नैसर्गिक क्षमता का विकास होता है। यह कार्य इस तरह होता है जैसे पौधों के अति विकसित अंगों को छांँटने या कतरने से उनका विकास होता है। लेकिन पुस्तकों के अध्ययन के साथ जीवन के व्यावहारिक अनुभवों का मिश्रण होना अनिवार्य है, नहीं तो सभी भाव और विचार अस्पष्ट रह जाएंँगे।
हम लोगों को इसीलिए अध्ययन नहीं करना चाहिए कि केवल दूसरों के वक्तव्य को काटें और उनकी बात को गलत साबित करें। केवल इसलिए अध्ययन करना निरर्थक है कि पुस्तकों में जो भी छपा है वह विवादों से परे है, उसका हर तथ्य सही है। पुस्तकों में विवाद के विषयों की खोज करते रहने के लिए अध्ययन करना भी ठीक नहीं है। अगर इन उद्देश्यों को ध्यान में रखकर हम अध्ययन करते हैं तो अध्ययन का वास्तविक उद्देश्य है अच्छे और बुरे में क्या भेद है, उसे पहचाने समझने की शक्ति प्राप्त करना और वस्तुओं के वास्तविक मूल्य की खोज करना।
सभी पुस्तक समान महत्व की नहीं होती। किताबें कई प्रकार की होती हैं और उनका अध्ययन भी भिन्न-भिन्न तरह से होना चाहिए। अनिश्चित मूल्यों की भी कई पुस्तक हैं। ऐसी पुस्तकों का सम्पूर्ण अध्ययन नहीं होना चाहिए। जैसे मामूली किस्म के भोजन और पेय पदार्थ केवल स्वाद लेने के लिए होते हैं और उनको अलग कर दिया जाता है। ठीक उसी तरह से ऐसी पुस्तकों का आंशिक अध्ययन ही पर्याप्त होता है। कुछ पुस्तक उत्तम है लेकिन सर्वोत्तम नहीं कहीं जा सकती। जैसे कुछ खाद्य तथा पेय पदार्थ अच्छे होते हैं लेकिन इतने अच्छे नहीं कि धीरे-धीरे खाकर उनका स्वाद ले लेकर आनन्द लिया या जाए।
ऐसी पुस्तक साधारण तौर पर पढ़ने लायक होती हैं। उन पर ज्यादा ध्यान देना जरूरी नहीं होता। ऐसी पुस्तक एक ग्रास में ही निगलने लायक होती हैं किंतु कुछ पुस्तक सर्वोत्तम कोटि की होती हैं। उनका अध्ययन धीमी गति से तथा सावधानी से ठहर ठहर कर होना चाहिए। भोजन के लिए बैठा हुआ आदमी जैसे उत्तम कोटि के खाद्य और पेय पदार्थों को कण्ठ में पहुंँचने से पहले देर तक उनका आनन्द लेता है, ठीक उसी तरह से ऐसी पुस्तक आनन्द देने वाली होती है।
( संकलित व सम्पादित)
युग निर्माण योजना अप्रैल 1971 पृष्ठ 23