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ऋषि चिंतन
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सफलता पाने के लिए धैर्यवान बनें।
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“मानसिक असंतुलन” और उत्तेजना से अधीरता का भाव उत्पन्न होता है। अधीर होना हृदय की संकीर्णता और आत्मिक बालकपन का चिह्न है। बच्चे जब बाग लगाने का खेल खेलते हैं तो उनकी कार्य प्रणाली विचित्र होती है। अभी बीज बोया, अभी उसमें खाद-पानी लगाया, अभी दो-चार मिनट के बाद ही बीज को उलट-पलटकर देखते हैं कि बीज में से अंकुर फूटा या नहीं। जब अंकुर नहीं दीखता तो उसे फिर गाड़ देते हैं और दो मिनट बाद फिर देखते हैं। इस प्रकार कई बार देखने पर भी जब वृक्ष उत्पन्न होने की उनकी कल्पना पूरी नहीं होती तो दूसरा उपाय काम में लाते हैं। वृक्षों की टहनियाँ तोड़कर मिट्टी में गाड़ देते हैं और उससे बाग की लालसा को बुझाने का प्रयत्न करते हैं। उन टहनियों के पत्ते उठा-उठाकर देखते हैं कि फल लगे या नहीं। यदि दस-बीस मिनट में फल नहीं लगते तो कंकड़ों को डोरे से बाँधकर टहनियों में लटका देते हैं। इस अधूरे बाग से उन्हें तृप्ति नहीं मिलती। फलतः कुछ देर बाद उस बाग को बिगाड़कर चले जाते हैं।कितने ही जवान और वृद्ध पुरुष भी उसी प्रकार की बाल-क्रीड़ाएँ अपने क्षेत्र में किया करते हैं, किसी काम को बड़े उत्साह से आरंभ करते हैं, इस ‘उत्साह’ की अति उतावली बन जाती है। कार्य आरंभ हुए देर नहीं होती कि यह देखने लगते हैं कि सफलता में अभी कितनी देर है। जरा भी प्रतीक्षा उन्हें सहन नहीं होती। जब उन्हें थोड़े ही समय में रंगीन कल्पनाएँ पूरी होती नहीं दीखतीं तो निराश होकर उसे छोड़ बैठते हैं।अनेक कार्यों को आरंभ करना और उन्हें बिगाड़ना, ऐसी ही बाल-क्रीड़ाएँ वे जीवन भर करते रहते हैं। छोटे बच्चे अपनी आकांक्षा और इच्छापूर्ति के बीच में किसी कठिनाई, दूरी या देरी की कल्पना नहीं कर पाते, इन बाल-क्रीड़ा करने वाले अधीर पुरुषों की भी मनोभूमि ऐसी ही होती है। यदि हथेली पर सरसों न जमी तो खेल बिगाड़ते हुए उन्हें देर नहीं लगती।
प्राचीन समय में जब शिष्य विद्याध्ययन के लिए गुरु के पास जाता था तो उसे पहले अपने “धैर्य” की परीक्षा देनी होती थी। गौएँ चरानी पड़ती थीं, लकड़ियाँ चुननी पड़ती थीं, उपनिषदों में इस प्रकार की अनेक कथाएँ हैं। इंद्र को भी लंबी अवधि तक इसी प्रकार तपस्यापूर्ण प्रतीक्षा करनी पड़ी थी, जब वह अपने धैर्य की परीक्षा दे चुका, तब उसे आवश्यक विद्या प्राप्त हुई। प्राचीन काल में विज्ञपुरुष जानते थे कि धैर्यवान पुरुष ही किसी कार्य में सफलता प्राप्त कर सकते हैं, इसलिए धैर्यवान स्वभाव वाले छात्रों को ही विद्याध्ययन कराते थे। क्योंकि उनके पढ़ाने का परिश्रम भी अधिकारी छात्रों द्वारा ही सफल हो सकता था। चंचल चित्त वाले, अधीर स्वभाव के मनुष्य का पढ़ना न पढ़ना बराबर है। अक्षरज्ञान हो जाने या अमुक कक्षा का सर्टिफिकेट ले लेने से कोई विशेष प्रयोजन सिद्ध नहीं होता।
“आतुरता” एवं “उतावली” का स्वभाव जीवन को असफल बनाने वाला एक भयंकर खतरा है।कर्म को परिपक्व होने में समय लगता है। रूई को कपड़े के रूप तक पहुँचने के लिए कई कड़ी मंजिलें पार करनी होती हैं और कठोर व्यवधानों में होकर गुजरना पड़ता है, जो संक्रांति काल के मध्यवर्ती कार्यक्रम को धैर्यपूर्वक पूरा होने देने की प्रतीक्षा नहीं कर सकता, उसे रूई को कपड़े के रूप में देखने की आशा न करनी चाहिए। किया हुआ परिश्रम एक विशिष्ट प्रक्रिया के द्वारा फल बनता है। इसमें देर लगती है और कठिनाई भी आती है। कभी-कभी परिस्थितिवश यह देरी और कठिनाई आवश्यकता से अधिक भी हो सकती है। उसे पार करने के लिए समय और श्रम लगाना पड़ता है। कभी-कभी तो कई बार का प्रयत्न भी सफलता तक नहीं ले पहुँचता, तब अनेक बार अधिक समय तक अविचल धैर्य के साथ जुटे रहकर अभीष्ट सिद्धि को प्राप्त करना होता है। आतुर मनुष्य इतनी दृढ़ता नहीं रखते, जरा सी कठिनाई या देरी से वे घबरा जाते हैं और मैदान छोड़कर भाग निकलते हैं। यही भगोड़ापन उनकी पराजयों का इतिहास बनता जाता है।
मानसिक संतुलन पृष्ठ ०२
पं.श्रीराम शर्मा आचार्य





