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(आशा भारती नेटवर्क)
अबेडकर नगर: विश्व प्रसिद्द सूफी संत हजरत मखदूम अशरफ सिमनानी के दरगाह पर गुस्ल की तारीख का ऐलान हो चुका है आपको बताते चलें कि
सज्जादा नशीन व मोतवल्ली आस्ताना मोहीउद्दीन अशरफ ने बातचीत में कहा कि 3 मई को साहिबे सज्जादा फखरुद्दीन अशरफ का चालीसवां का फातिहा उनके आवास स्थित बसखारी में होगा।और 4 मई को सुबह फज्र के समय में हजरत मखदूम अशरफ सिमनानी का गुसल की रसम अदा की जाएगी!
उन्होंने कहा कि दरगाह पर आए हुए जायरीन के लिए हमारी कमेटी की तरफ से हर संभव मदद की जाएगी एवं साफ-सफाई का भी विशेष ध्यान रखने के लिए कहा गया है!वहीं दूसरी तरफ मखदूम अशरफ इंतजामिया कमेटी के अध्यक्ष सैयद अजीज अशरफ ने कहा कि दरगाह पर गुसल की तारीख का ऐलान हो चुका है और मैं दरगाह पर आ रहे सभी जायरीन का ध्यान रखने के लिए हमने अपनी कमेटी के सभी पदाधिकारियों को निर्देश दिया है !
आपको बताते चलें कि गुसल में आए हुए जायरीन नो के लिए मेडिकल कैंप की विशेष सुविधा रहेगी।यह मेडिकल कैंप मौलाना अनीस मियां की तरफ से लगाया जाएगा।
आपको बताते चलें कि मखदूम साहब की यह दरगाह लगभग सात सौ साल पुरानी है। बताया जाता है कि ईरान के सिमनान प्रान्त के बादशाह लगभग सात सौ साल पहले अपने बादशाहत छोड़कर भारत चले आये थे
नीर शरीफ का जल फायदेमंद:
ऐसा माना जाता है कि छठवीं सदी में ईरान के सिमनान प्रान्त के बादशाह हजरत मखदूम अशरफ सिमनानी अपनी बादशाहत छोड़ कर लोगों की भलाई के लिए निकल पड़े थे और कई देशों में घुमते घुमते किछौछा शरीफ को अपना आखिरी ठिकाना बनाया। इस जगह पर उन्होंने ने एक बड़ा सरोवर खुदवाया। बताया जाता है कि इस सरोवर की खुदाई के समय कुरान की आयतें पढ़ी जाती रही हैं और इसके निर्माण कार्य के पूर्ण होने के बाद जब इसका प्रयोग लोगों ने शुरू किया तो हैरान कर देने वाला नतीजा सामने आया। जिन लोगों को कोई भी शारीरिक बीमारी थी इस सरोवर में नहाने से सब ठीक हो गई। यहां तक कि चरम रोग के भी रोगी ठीक होने लगे। देखते ही देखते इस सरोवर की प्रसिद्धि इतनी बढ़ी कि पूरी दुनिया से लोग यहां आने लगे।
मखदूम साहब और कमाल पंडित की दोस्ती और मानवता के लिए उनकी भलाई का यह सिल सिला तब से चलता चला आ रहा है। मखदूम साहब की मौत के बाद उनके आस्ताने की देखभाल का जिम्मा उनके भांजे अब्दुल रज्जाक नुरुल ऐन ने सम्हाल लिया। बताया जाता है कि नुरुल ऐन को अपने जीवन काल में ही अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। मखदूम साहब के लोगों के खिदमत की यह परम्परा आज भी बदस्तूर चली आ रही है। हर साल मुहर्रम के महीने में लाखों की संख्या में देश
विदेश से लोग उनकी मजार पर अपनी मन्नतों को लेकर आते हैं और चादर चढाते हैं। इस फ़कीर की मजार पर हर अमीर-गरीब, छोटा-बड़ा एक समान है। यहाँ आने वालों में मुसलमान के साथ-साथ हिन्दुओं की भी संख्या काफी संख्या में होती है। हिन्दू मुस्लिम एकता और भाईचारे के प्रतीक के रूप में भी यह दरगाह प्रसिद्द है।
ईरान के सिमनान कस्बे में 707 हिजरी (सन 1286 ) में सूफी सन्त मखदूम अशरफ का जन्म हुआ था। बचपन से ही मखदूम साहब फकीरी, साधुत्व व ईश्वर प्रेम में लीन रहा करते थे। जब मखदूम साहब 15 वर्ष के थे त्यों ही उनके बादशाह पिता इब्राहिम का स्वर्गवास हो गया था परिणामस्वरूप आपको उनका उत्तराधिकारी चुना गया कुछ वर्षों तक राजपाट चलाने के बाद आपकी यह दिली मन्शा थी कि अपने छोटे भाई सै़ मोहम्मद को राजसिहांसन सौंप कर ईश्वर की अराधना व तपस्या में लीन हो जाए। ऐसी मान्यता है कि ईरान के सिमनान में एक प्रार्थना सभा स्थल पर वह इबादत कर रहे थे तभी ईश्वरीय सन्देश प्राप्त हुआ कि राज सिहांसन का परित्याग करके ऐ मखदूम अशरफ फकीरी की मंजिल पाने के लिए हिन्दुस्तान की तरफ कूच कर जाओ। 808 हिजरी (सन 1387) में हजरत मखदूम ने मानव जाति की सेवा करते हुए आखिरी सॉस ली और इस दुनिया को अलविदा कहा।