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प्रतिभा से बढ़कर और कोई समर्थता है नहीं…
भगवान ने सुदामा को अपनी द्वारिकापुरी, टूटी सुदामापुरी के स्थान पर स्थानान्तरित कर दी थी, पर इससे पहले यह विश्वास कर लिया था कि इस अनुदान को उस स्थान पर कारगर विश्वविद्यालय चलाने के लिए ही प्रयुक्त किया जाएगा। चाणक्य की शक्ति चन्द्रगुप्त को ही मिली थी और वह चक्रवर्ती कहलाया था।
भवानी की अक्षय तलवार शिवाजी को मिली थी। अर्जुन को दिव्य गाण्डीव धनुष एवं बाण देने वालों ने अनुदान थमा देने से पहले यह भी जाँच लिया था कि उस समर्थता को किस काम में प्रयुक्त किया जाएगा? यदि बिना जाँच-पड़ताल के किसी को कुछ भी दे दिया जाए, तो भस्मासुर द्वारा शिवजी को जिस प्रकार हैरान किया गया था, वैसी ही हैरानी अन्यों को भी उठानी पड़ सकती है।
भगवान ने काय-कलेवर तो आरम्भ से ही बिना मूल्य दे दिया है, पर उसके बाद का दूसरा वरदान है ‘‘परिष्कृत प्रतिभा’’। इसी के सहारे कोई महामानव स्तर का बड़प्पन उपलब्ध करता है। इतनी बहुमूल्य सम्पदा प्राप्त करने के लिए वैसा ही साहस एकत्रित करना पड़ेगा, जैसा कि लोकमंगल के लिए विवेकानन्द जैसों को अपनाना पड़ा था। इन दिनों परीक्षा भरी वेला है, जिसमें सिद्ध करना होगा कि जो कुछ दैवी-अनुग्रह विशेष रूप से उपलब्ध होगा, उसे उच्चस्तरीय प्रयोजन में ही प्रयुक्त किया जायेगा। कहना न होगा कि इन दिनों नवयुग के अवतरण का पथ-प्रशस्त करना ही वह बड़ा काम है, जिसके लिए कटिबद्ध होने पर ‘परिष्कृत प्रतिभा’ का बड़ी मात्रा में, अनुग्रह प्राप्त किया जा सकता है। उसे धारण करने पर ‘हीरे का हार’ पहनने वाले की तरह शोभायमान बना जा सकता है।
ईश्वरीय व्यवस्था में यही निर्धारण है कि बोया जाए और उसके बाद काटा जाए। पहले काट लें, उसके बाद बोएँ, यही नहीं हो सकता। लोकसेवी उज्ज्वल छवि वाले लोग ही प्राय: वरिष्ठ, विश्वस्त गिने और उच्चस्तरीय प्रयोजनों के लिए प्रतिनिधि चुने जाते हैं।
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य