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परिस्थितियों की अनुकूलता की प्रतीक्षा करते-करते मूल उद्देश्य दूर पड़ा रह जाता है। जीवन में जो हमारा लक्ष्य है, उसे हम परिस्थिति के प्रपंच में पड़कर विस्मृत कर रहे हैं। आदर्श परिस्थितियांँ इस व्यस्त संसार में दुष्प्राप्य हैं।
परिस्थितियांँ मनुष्य के अपने हाथ की बात हैं। मन की सामर्थ्य एवं आन्तरिक स्वावलम्बन द्वारा हम स्वयं उन्हें विनिर्मित करने वाले हैं। हम जैसा चाहें, जब चाहें, सदैव कर सकते हैं। कोई भी अड़चन हमारे मार्ग में नहीं आ सकती। मन की आन्तरिक सामर्थ्य के सम्मुख प्रतिकूलता बाधक नहीं हो सकती।
सदा जीतने वाला पुरुषार्थी वह है, जो सामर्थ्य के अनुसार परिस्थितियों को बदलता है, किन्तु यदि वे बदलती नहीं, तो स्वयं अपने आप को उन्हीं के अनुसार बदल लेता है ।
उन्नति की मूल वस्तु महत्वाकांँक्षा है। न जाने मन के किस अतल गह्वर में यह अमूल्य सम्पदा छिपी पड़ी हो, किन्तु आप में है अवश्य।आत्मनिरीक्षण कीजिए और इसे खोज कर निकालिए।
प्रतिकूल परिस्थितियों से परेशान न होकर उनके अनुकूल बनिए और फिर धीरे-धीरे उन्हें बदल डालिए। मनचाही परिस्थितियांँ इस संसार में दुष्प्राप्य है। हमें अपने मूल उद्देश्य को दृष्टि से दूर नहीं करना चाहिए।
— पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य
( संकलित व सम्पादित)
अखण्ड ज्योति मई 1949, पृष्ठ 20