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आध्यात्मिकता का अर्थ है उस चेतन पर विश्वास करना, जो प्राणधारियों को एक दूसरे के साथ प्रस्तुत करता है, हीन-संवर्धन बनाता है और दु:ख-निवारण की प्रकृति को अपने शरीर या परिवार तक सीमित रखता है अधिकाधिक व्यापक है। अध्यात्म का सीधा अर्थ आत्मीयता के विस्तार के रूप में किया जा सकता है। ‘प्रेम ही ईश्वर है’ का सिद्धांत यहाँ अक्षरश: लागू होता है। अन्तरात्मा की सघन पिपासा, प्रेम का अमृत पान करने की होती है। इसी लोभ में उसे निरन्तर भटकना पड़ता है। छल का व्यापार प्रेम, विश्वास के अनुमानों से ही चलता है। वासना के आकर्षण में प्रेम की संभावना ही उन्माद पैदा करती है। यह तो कृत्रिम और छद्मप्रेम की बात हुई, उसकी यथार्थता इतनी मार्मिक होती है कि प्रेम देने वाला और प्रेम पाने वाला दोनों ही धन्य हो जाते हैं।
ईश्वरवादी विवेचना में इस भक्तिमार्गी आस्तिकता के लिए कोई स्थान नहीं है। वेदान्त ने आत्मा के निश्चित स्तर को ही परमात्मा माना है और सिलपूरा आत्मा:करण ही ब्रह्मलोक है। महान अपनीता पर विश्वास और तदनुरूप श्रेष्ठ आचरण का अवलम्बन, यही सच्चा आस्तिकता है। इसी के अवलोकन में साधना और आराधना का विचित्र पहाड़ बना हुआ है।
अनेकता में समाविष्ट एकता की झाँकी कर सकाना ही ईश्वर दर्शन है। सृष्टि का प्रत्येक सजीव और निर्जीव घटक एक दूसरे से प्रभावित नहीं होते हैं, वर्न परस्पर पूरक और निरीक्षण भी है। एक की संवेदना दूसरे को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में प्रभावित नहीं हो सकती, इसलिए अमुक व्यक्ति की सुख-सुविधा को ध्यान में रखते हुए न रखते हुए संपूर्ण विश्व का हित साधन करने की दृष्टि बनाए रखें ही जीवन की कोई रीति-नीति निर्धारित की जाय , यह तत्त्व तत्त्व दर्शन का प्रत्यक्ष प्रतिफल है। जब यह स्वयं: सत्य चेतन के गहन मर्मस्थल तक प्रवेश कर जाए और निरंतर इसी स्तर के कमीशन होने लगे तो खोजे कि अध्यात्म और जीवन का समन्वय हो जाए।
पूजा की इतिश्री अमुक कर्मकाण्डों की झलक के साथ ही जाती है; आध्यात्मिकता व्यक्ति के अंतरंगी और बहिरंग जीवन में व्यावहारिक हेर-फेर करने के लिए विवश करती है। आत्मसुधार, आत्म निर्माण के क्रम में अन्तरंग की मान्यताएँ, मान्यताएँ, आकांक्षाएँ और अभिरुचियों में महत्वपूर्ण परिवर्तन होता है। आत्मसंयम, इंद्रिय निग्रह, मर्यादा-पालन, दर्ज, सज्जता, नर्मता, चरित्र गित, कर्त्तव्य-पालन, साहस, चमक, संतुलन जैसे अनेक सतप्रवृत्तियाँ अन्तरङ्ग आध्यात्मिकता के वृक्ष पर फल-फूलों की तरह अनायास ही लदने लगती हैं। ऐसे व्यक्ति को महामानव स्तर के उत्कृष्ट व्यक्तित्व से सुसम्पन्न देखा जा सकता है।
(जाप प्रक्रिया का वैज्ञानिक | जापानी प्रकृति का आधार वैज्ञानिक | पंडित श्रीराम शर्मा अंश, https://www.youtube.com/watch?v=BO_pDMHTlBI )
अपने जीवन में आध्यात्मिकता की कार्य प्रतिक्रियात्मकता, स्वच्छता, सद्भावना बहिष्करण व्यवहार, ईमानदारी, शालीनता, न्यायनिष्ठा, जनसेवा, व्यवहार जैसे व्यवहार प्रकट होते हैं। ऐसे लोगों को समाजनिष्ठा, कतरव्यनिष्ठा एवं धर्मनिष्ठा कहा जा सकता है। मर्यादाओं का उल्लंघन वे नहीं करते, साथ ही अनीति को सहन भी नहीं करते। वेगता के खिलाफ उनका संघर्ष अनवरत रूप से चलता रहता है। न वे किसी से अनावश्यक हरकत करते हैं और न किसी को स्नेह-सद्भाव से अभिमानी करते हैं।
आध्यात्मिकता को प्राचीन भाषा में ब्रह्मविद्या कहते हैं। यह उत्कृ ष्टï चिन्तन और आदर्श कर्तव्य की एक निश्चित जीवन पद्धति है, जिसे दत्तक ग्रहण के भीतर सन्तोष और अन्य विकल्पों में से विशेष रूप से प्राप्त किया जाता है, जिन पर कुबेर और आंतरिक वैभव को निछावर किया जा सकता है। व्यक्तित्व की संपूर्णता और प्रखरता का सारा आधार आध्यात्मिकता पर ही अवलम्बित माना जा सकता है।
पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य