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परमात्मा का प्रेम पूर्ण है, पवित्र है (१)
मनुष्य के जीवनोद्देश्य का जितनी गहराई से अध्ययन करें उतना ही यह स्पष्ट हो जाता है कि “अतिशय आनन्द” ही उसकी मूलभूत आकाँक्षा या जीवन का लक्ष्य है। जिस वस्तु में मनुष्य को आनन्द का आभास होता है। वह उधर ही दौड़ता रहता है। यह बात दूसरी है कि अल्प बुद्धि, अविकसित हृदय एवं प्रसुप्त विवेक के कारण वह सच्चे आनन्द को न समझ-पा सके किन्तु चिर-सुख की अभिलाषा प्रत्येक मनुष्य करता है और इसी लक्ष्य की पूर्ति में ही उसका सारा जीवन बीत जाता है।
जिन वस्तुओं में आनन्द दिखाई देता है उसके प्रति प्रेम होना, अनुराग होना मनुष्य-स्वभाव की विशेषता है। लेकिन जिस आनन्द की अभिलाषा से मनुष्य पदार्थों से प्रेम करता है उससे आनन्द की पूर्ति यदि न हो तो यह समझना चाहिये कि उससे जीवन-लक्ष्य हल नहीं होता। वह अग्राह्य है। विषय वासनाओं में सुख तो जरूर है पर वह क्षणिक है और मनुष्य की लालसा यह है कि वह ऐसा सुख प्राप्त करे जो कभी नष्ट न हो, जिससे उसे कभी भी विमुख न होना पड़े।
धन आनन्द की वस्तु है पर वह स्थायी नहीं है। थोड़ा-सा आनन्द देने के बाद धन अपना साथ छोड़ कर भाग जाता है। सब की आँखों में धूल झोंकती हुई लक्ष्मी देवी कभी इसके पास, कभी उसके पास डोलती रहती है, न उससे एक को ही पूरा आनन्द मिलता है न दूसरे को ही। धन का सुख, सुख नहीं मृगतृष्णा है, भुलावा है। अतः धन के प्रेम को भी साध्य नहीं कहा जा सकता।
अखण्ड ज्योति के मणि मुक्तक
जून १९६५